DESK / भारत-पाकिस्तान | पाकिस्तान ने शायद ही कभी यह सोचा होगा कि जिस आतंकवादी समूह को वह पाल-पोसकर बड़ा कर रहा है, वही एक दिन उसके लिए भस्मासुर साबित होगा. दरअसल, ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि इन दिनों अफगान तालिबान ने पाकिस्तानी सैनिकों पर अपने हमले बढ़ा दिए हैं. 28 दिसंबर को ही तालिबान ने घर में घुसकर पाकिस्तान के 19 जवानों को हमेशा के लिए खामोश कर दिया. आखिर क्या है इसके पीछे की वजह और क्यों अचानक से तालिबान ने पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक रवैया अख्तियार कर लिया है? चलिए जानते हैं…
अगस्त 2021 में जब अफ़ग़ान तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा किया, तो पाकिस्तान के गृह मंत्री शेख राशिद अहमद ने तोरखम बॉर्डर पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. उन्होंने तालिबान के सत्ता में आने को “नई शक्ति गठबंधन” के रूप में पेश किया और कहा कि इस कदम से दुनिया में इस क्षेत्र की अहमियत में इजाफा होगा बढ़ेगी. वहीं, पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने तालिबान के सत्ता में लौटने को अफ़ग़ानिस्तान के “गुलामी की बेड़ियां तोड़ने” से जोड़ा था.
तालिबान ने लगभग 20 सालों तक एक सशक्त विद्रोह चलाया था, जिसमें एक समय पर संयुक्त राज्य अमेरिका की अगुवाई में 40 देशों का सैन्य गठबंधन अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के खिलाफ जंग लड़ रहा था. इस दौरान, तालिबान के नेताओं और सैनिकों को पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में शरण मिली. इसके साथ ही, तालिबान नेताओं का पाकिस्तान के प्रमुख शहरों जैसे क्वेटा, पेशावर और बाद में कराची में भी प्रभाव बढ़ता गया.
तनाव के पीछे की ऐतिहासिक और वर्तमान वजहें
अफगानिस्तान का पाकिस्तान के साथ एक जटिल इतिहास रहा है, जबकि पाकिस्तान ने काबुल में तालिबान का स्वागत एक स्वाभाविक सहयोगी के रूप में किया, तालिबान सरकार पाकिस्तान की उम्मीदों के विपरीत कम सहयोगी साबित हो रही है. अलजजीरा के मुताबिक, तालिबान नेता बड़े पैमाने पर अफगान समाज से समर्थन जुटाने के लिए राष्ट्रवादी बयानबाजी का सहारा ले रहे हैं. इसके अलावा, तालिबान नेता एक लड़ाकू समूह से सरकार में बदलने के लिए उत्सुक हैं और पाकिस्तान पर भारी निर्भरता से परे संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
डूरंड रेखा, जो औपनिवेशिक युग की सीमा है और अफगानिस्तान और अब पाकिस्तान के बीच क्षेत्रों और समुदायों को विभाजित करती है, को 1947 में पाकिस्तान की स्थापना के बाद किसी भी अफगान राज्य द्वारा औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी गई है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे दोनों देशों के बीच सीमा के रूप में मान्यता प्राप्त है और पाकिस्तान ने इसमें लगभग पूरी तरह से बाड़ लगा दी है. फिर भी, अफगानिस्तान में, डूरंड रेखा एक भावनात्मक मुद्दा बन गई है क्योंकि यह सीमा के दोनों ओर पश्तूनों को विभाजित करती है. 1990 के दशक में तालिबान सरकार ने डूरंड रेखा को मान्यता नहीं दी थी और वर्तमान तालिबान शासन भी अपने पहले के शासकों के नक्शेकदम पर चल रही है. पाकिस्तान में, इसे एक परेशानी और अफगानिस्तान में पाकिस्तान की ‘रणनीतिक गहराई’ के सिद्धांत के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जाता है |
Anu gupta